अब किसी भी ब्लड ग्रुप की किडनी लगेगी किसी को भी,’यूनिवर्सल किडनी’ का निर्माण, डेड मरीज पर ट्रायल सफल

किडनी ट्रांसप्लांट के लिए महीनों-सालों तक इंतजार कर रहे लाखों मरीजों के लिए एक बहुत बड़ी खुशखबरी है। वैज्ञानिकों ने एक ऐसी ‘यूनिवर्सल किडनी’ बनाने में सफलता हासिल की है, जिसे अब सिद्धांत रूप में किसी भी ब्लड ग्रुप के मरीज के शरीर में लगाया जा सकता है, बिना शरीर द्वारा उसे अस्वीकार (रिजेक्ट) किए जाने के खतरे के।
कनाडा की ब्रिटिश कोलंबिया यूनिवर्सिटी और चीन के संस्थानों के शोधकर्ताओं की टीम ने लगभग 10 सालों की कड़ी मेहनत के बाद यह सफलता पाई है। इस खोज से किडनी ट्रांसप्लांट का इंतजार कर रहे मरीजों की वेटिंग लिस्ट (प्रतीक्षा सूची) बहुत छोटी हो सकती है और हजारों की जान बचाई जा सकती है।
क्या है यह ‘यूनिवर्सल किडनी’?
यह सफलता किसी जादू से कम नहीं है। दरअसल, जब मरीज और डोनर का ब्लड ग्रुप अलग होता है, तो मरीज का शरीर डोनर की किडनी को ‘बाहरी हमलावर’ मानकर उसे तुरंत खारिज कर देता है। ऐसा किडनी पर मौजूद खास तरह के शर्करा अणुओं (Antigens) के कारण होता है, जो हर ब्लड ग्रुप की पहचान होते हैं।
वैज्ञानिकों ने विशेष एंजाइमों का उपयोग किया, जो आणविक कैंची (Molecular Scissors) की तरह काम करते हैं। इन एंजाइमों ने डोनर की टाइप ‘ए’ ब्लड ग्रुप वाली किडनी पर मौजूद उन एंटीजन अणुओं को काट कर हटा दिया।
परिणाम: एंटीजन हटने के बाद यह किडनी टाइप ‘ओ’ ब्लड ग्रुप वाली किडनी की तरह हो गई। टाइप ‘ओ’ को ‘यूनिवर्सल डोनर’ माना जाता है। इस प्रक्रिया से किडनी सार्वभौमिक (Universal) बन गई।
सफल रहा ब्रेन डेड मरीज पर परीक्षण
शोधकर्ताओं ने इस ‘यूनिवर्सल किडनी’ का परीक्षण एक ब्रेन डेड मरीज के शरीर पर किया। किडनी को कई दिनों तक शरीर में जोड़े रखा गया और परिणाम बेहद उत्साहजनक रहे। किडनी ने सामान्य रूप से काम किया और शरीर द्वारा उसे खारिज करने (रिजेक्शन) का कोई संकेत नहीं मिला।
विभिन्न मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार ब्रिटिश कोलंबिया यूनिवर्सिटी के जैव रसायनज्ञ स्टीफन विथर्स ने कहा, “यह पहली बार है जब हमने इस तकनीक को किसी इंसानी मॉडल में सफलतापूर्वक काम करते देखा है। इससे हमें भविष्य में लंबे समय तक बेहतर परिणाम पाने के बारे में बहुत महत्वपूर्ण जानकारी मिलती है।”
क्यों है यह खोज ‘गेम चेंजर’?
आज की व्यवस्था में, अगर किसी ‘ओ’ ब्लड ग्रुप वाले मरीज को किडनी चाहिए, तो उसे ‘ओ’ ग्रुप डोनर का ही इंतजार करना पड़ता है। अन्य ग्रुप्स की किडनी ट्रांसप्लांट करने के लिए मरीज के शरीर को रिजेक्शन से बचाने के लिए महीनों तक महंगी, जोखिमभरी और थकाऊ दवाएं देनी पड़ती हैं।
इस नई तकनीक से ये सब बदल जाएगा:
* ब्लड ग्रुप की बाधा समाप्त: अब ‘सही ब्लड ग्रुप’ वाले डोनर की तलाश नहीं करनी पड़ेगी।
* वेटिंग लिस्ट होगी छोटी: ट्रांसप्लांट के लिए डोनर मिलने के मौके कई गुना बढ़ जाएंगे।
* सुरक्षित और आसान प्रक्रिया: मौजूदा जटिल, महंगी और जोखिम भरी तैयारी की जरूरत कम होगी।
* बचेंगी हजारों जानें: जो मरीज केवल डोनर मैच न होने के कारण दम तोड़ देते हैं, उनकी जान बचाई जा सकेगी।
फिलहाल, यह तकनीक अभी भी परीक्षण के चरण में है, लेकिन वैज्ञानिकों का मानना है कि इसके सकारात्मक नतीजों को देखते हुए जल्द ही बड़े पैमाने पर ह्यूमन ट्रायल्स शुरू किए जाएंगे। अगर यह अंतिम रूप से सफल होती है, तो यह मेडिकल साइंस में एक क्रांति साबित होगी।





