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केंद्र सरकार का बड़ा फैसला: राष्ट्रीय जनगणना के साथ होगी जाति आधारित जनगणना, इसके पूर्व आजादी से पहले ब्रिटिश शासन काल में 1931 में हुई थी देश में जातिगत जनगणना

नई दिल्ली: केंद्र सरकार ने बुधवार को एक महत्वपूर्ण निर्णय लेते हुए देश में इस बार जाति आधारित जनगणना कराने की मंजूरी दे दी है। केंद्रीय मंत्रिमंडल की बैठक में इस प्रस्ताव को हरी झंडी दिखाई गई, जिसके बाद केंद्रीय मंत्री अश्विनी वैष्णव ने मीडिया को इसकी जानकारी दी। उन्होंने स्पष्ट किया कि यह जाति जनगणना मुख्य राष्ट्रीय जनगणना के साथ ही आयोजित की जाएगी। सरकार के इस कदम को सामाजिक और राजनीतिक रूप से काफी महत्वपूर्ण माना जा रहा है, खासकर ऐसे समय में जब इस साल के अंत में बिहार में विधानसभा चुनाव होने हैं।
यह एक महत्वपूर्ण नीतिगत बदलाव है, क्योंकि स्वतंत्रता के बाद देश में जाति आधारित जनगणना नहीं हुई है। स्वतंत्रता से पहले, 1931 में ब्रिटिश शासन के दौरान अंतिम बार जातिगत जनगणना की गई थी। हालांकि, 2011 में सामाजिक-आर्थिक और जाति जनगणना (SECC) कराई गई थी, लेकिन इसके जाति संबंधी आंकड़े सार्वजनिक नहीं किए गए थे।

केंद्रीय मंत्री अश्विनी वैष्णव ने बताया कि सरकार लंबे समय से विभिन्न सामाजिक और आर्थिक समूहों के सटीक आंकड़ों की आवश्यकता महसूस कर रही थी। जाति आधारित जनगणना से देश में विभिन्न जातियों की जनसंख्या और उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति का विस्तृत डेटा उपलब्ध हो सकेगा। सरकार का मानना है कि इस जानकारी के आधार पर लक्षित नीतियां बनाने और विकास योजनाओं को प्रभावी ढंग से लागू करने में मदद मिलेगी। उन्होंने यह भी कहा कि यह प्रक्रिया पूरी तरह से पारदर्शी और व्यवस्थित तरीके से संपन्न कराई जाएगी।
सरकार के इस फैसले के कई राजनीतिक मायने भी निकाले जा रहे हैं। बिहार, जहां इस साल के अंत में विधानसभा चुनाव होने हैं, वहां जातिगत समीकरण हमेशा से ही महत्वपूर्ण रहे हैं। कई राजनीतिक दल लंबे समय से जाति आधारित जनगणना की मांग कर रहे थे। इस निर्णय को बिहार के राजनीतिक परिदृश्य पर भी गहरा प्रभाव डालने वाला माना जा रहा है।

सरकार का कहना है कि जाति आधारित जनगणना से सामाजिक और आर्थिक नीतियों को बेहतर ढंग से बनाने में मदद मिलेगी। उनका यह भी कहना है कि कुछ राज्यों ने राजनीतिक मंशा से गैर-पारदर्शी तरीके से जाति सर्वेक्षण कराए हैं, जिससे भ्रम और अविश्वास पैदा हुआ है। राष्ट्रीय जनगणना के साथ जाति गणना को शामिल करने से डेटा संग्रह पारदर्शी और संरचित तरीके से किया जाएगा।

हालांकि, जाति आधारित जनगणना को लेकर कुछ चुनौतियां भी हैं। इतनी बड़ी आबादी वाले देश में जातियों और उप-जातियों का सही वर्गीकरण और उनका डेटा एकत्र करना एक जटिल प्रक्रिया साबित हो सकती है। इसके अलावा, इस डेटा के इस्तेमाल को लेकर भी विभिन्न राजनीतिक और सामाजिक समूहों के अलग-अलग मत हो सकते हैं।
गौरतलब है कि स्वतंत्र भारत में आखिरी बार जाति आधारित जनगणना 1931 में हुई थी। उसके बाद से समय-समय पर इसकी मांग उठती रही है, लेकिन विभिन्न कारणों से इसे लागू नहीं किया जा सका था। अब केंद्र सरकार के इस फैसले से लंबे समय से चली आ रही यह मांग पूरी होती दिख रही है।
विशेषज्ञों का मानना है कि जाति आधारित जनगणना से प्राप्त आंकड़े सामाजिक न्याय और समावेशी विकास की दिशा में महत्वपूर्ण कदम साबित हो सकते हैं। यह देखना दिलचस्प होगा कि सरकार इस विशाल और जटिल प्रक्रिया को किस प्रकार से अंजाम देती है और इसके दीर्घकालिक परिणाम क्या होते हैं। फिलहाल, केंद्र सरकार का यह निर्णय देश की सामाजिक और राजनीतिक बहस को एक नया मोड़ देता हुआ दिखाई दे रहा है।

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