सम्पादकीय

नेपाल: युवा आक्रोश, सोशल मीडिया का तूफान और बाहरी साजिश की बहस के बीच एक सरकार का पतन

संपादकीय
अमित श्रीवास्तव

नेपाल में प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली के इस्तीफे ने न केवल देश की राजनीति में एक नया अध्याय शुरू किया है, बल्कि इसने पूरे दक्षिण एशिया में एक महत्वपूर्ण बहस छेड़ दी है। यह बहस है कि क्या युवा आक्रोश और छात्र आंदोलन एक बार फिर सरकार गिराने का जरिया बन रहे हैं, और क्या इन आंदोलनों को हवा देने में किसी बाहरी ताकत का हाथ है। जिस तरह से नेपाल का यह आंदोलन हिंसक हुआ और इसकी मांगें सीधे प्रधानमंत्री के इस्तीफे तक पहुँच गईं, उसने यह संदेह पैदा कर दिया है कि क्या इसके पीछे कोई विदेशी शक्ति या एजेंसी तो नहीं है।

बाहरी हस्तक्षेप: एक पुराना और नया संदेह

नेपाल में राजनीतिक उथल-पुथल के दौरान बाहरी हस्तक्षेप का आरोप लगना कोई नई बात नहीं है। राजशाही खत्म करने से लेकर लोकतंत्र की स्थापना तक, हर बड़े बदलाव में पड़ोसी देशों या अन्य वैश्विक शक्तियों की भूमिका पर सवाल उठे हैं। वर्तमान में, जब नेपाल अपनी विदेश नीति में चीन और भारत के बीच संतुलन साधने की कोशिश कर रहा है, तो इस तरह के संदेह और बढ़ जाते हैं।

यह संभव है कि कुछ विदेशी एजेंसियाँ अपने भू-राजनीतिक हितों को साधने के लिए इस आंदोलन को परोक्ष रूप से समर्थन दे रही हों। वे सोशल मीडिया और इंटरनेट के माध्यम से युवाओं में असंतोष फैलाकर देश में अस्थिरता पैदा कर सकती हैं। यह एक तरह का ‘हाइब्रिड वॉरफेयर’ है, जहाँ सीधे सैन्य हस्तक्षेप के बजाय जनता के गुस्से को हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। जिस तरह से यह आंदोलन तब शुरू हुआ जब नेपाल सरकार अपनी विदेश नीति में संवेदनशील स्थिति में थी, वह भी संदेह को जन्म देता है। ऐसा लगता है कि कोई ताकत नेपाल को अस्थिर कर अपने हितों के अनुरूप सरकार को बदलना चाहती है।

सोशल मीडिया की ताकत: फेसबुक, इंस्टाग्राम की ‘ज्वाला’ ने गिराई नेपाल सरकार?

नेपाल में प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली का इस्तीफा सिर्फ एक राजनीतिक घटना नहीं है, बल्कि यह सोशल मीडिया की असीम शक्ति का एक बड़ा प्रमाण है। इस घटना ने यह साबित कर दिया है कि फेसबुक, इंस्टाग्राम और व्हाट्सएप जैसे प्लेटफॉर्म अब सिर्फ संवाद के साधन नहीं रहे, बल्कि ये ऐसे हथियार बन गए हैं जो जनता को संगठित कर सरकारें तक गिरा सकते हैं। नेपाल सरकार ने इन प्लेटफॉर्म्स पर प्रतिबंध लगाकर खुद को एक डिजिटल तूफान के सामने खड़ा कर दिया। सरकार का मानना था कि इन प्लेटफॉर्म्स पर लगाम लगाकर वे असंतोष को नियंत्रित कर लेंगे, लेकिन यह एक बड़ी गलतफहमी साबित हुई। पारंपरिक मीडिया की तुलना में, सोशल मीडिया ने जानकारी को बिजली की गति से फैलाया, जिससे हजारों युवाओं को सड़कों पर उतरने के लिए प्रेरित किया और सरकार के लिए स्थिति को नियंत्रित करना लगभग असंभव हो गया। नेपाल का यह उदाहरण हमें बताता है कि अब सरकारों को केवल पारंपरिक राजनीतिक विरोधियों से ही नहीं, बल्कि सोशल मीडिया के माध्यम से संगठित होने वाली जनता की शक्ति से भी सावधान रहना होगा। यह एक नया युग है, जहां एक ट्वीट या एक पोस्ट भी सत्ता के सिंहासन को हिला सकता है।

युवा आक्रोश की ज्वाला: जनता की आवाज

हालांकि, बाहरी हस्तक्षेप की संभावना को पूरी तरह से स्वीकार करना भी एकतरफा होगा। यह भी संभव है कि सरकार अपनी विफलताओं से ध्यान भटकाने के लिए इस तरह के आरोप लगा रही हो।
आज का युवा पहले से कहीं अधिक जागरूक और स्वायत्त है। यह मानना कि हजारों की संख्या में युवा केवल किसी बाहरी ताकत के इशारे पर सड़कों पर आ गए, उनके आक्रोश और निराशा को कम करके आंकना होगा। इस आंदोलन के मूल कारण, जैसे बेरोजगारी, भ्रष्टाचार और राजनीतिक परिवारवाद, पूरी तरह से घरेलू हैं। ये मुद्दे वर्षों से युवाओं के मन में पनप रहे थे। सोशल मीडिया पर लगे प्रतिबंध ने केवल उन्हें एक साथ आने और अपनी आवाज उठाने का मौका दिया।
अंततः, यह बहस जारी रहेगी कि नेपाल में हुए इस राजनीतिक बदलाव के पीछे जनता का आक्रोश था या बाहरी शक्तियों की साजिश। लेकिन एक बात साफ है कि सरकार को युवाओं की मांगों को गंभीरता से लेना चाहिए, न कि इसे किसी षड्यंत्र का हिस्सा बताकर टाल देना चाहिए। जब तक सरकार अपनी जवाबदेही तय नहीं करती और युवाओं की आकांक्षाओं को पूरा नहीं करती, तब तक यह आग शांत होने वाली नहीं है, भले ही इसके पीछे कोई भी हो।

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